आगरा: जानिए हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर 750 साल से क्यों मनाई जा रही है बसंत पंचमी

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आगरा. आस्ताना हज़रत मैकश ख़ानक़ाह ए क़ादरिया नियाज़िया, मेवा कटरा सेब का बाज़ार, आगरा पर हर साल जश्न ए बसंत होता है, जिसमे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं जिसमे नज़ीर एवार्ड दिया जाता है एंव कव्वाल सूफी बंसत पर कलाम पढते हैं सूफियों मे सिलसिला ए चिश्तिया हज़रत ख़्वाजा गरीब नवाज़ सय्यद मुईन उद्दीन चिश्ती (रज़ि) और हज़रत निज़ाम उद्दीन औलिया महबूब ए ईलाही (रज़ि) के मुरीद बंसत पर हाज़री दे कर ख़िराज ए अक़ीदत पेश करते हैं. 

नज़ीर-बसंत और आगरा : नज़ीर अकबराबादी ने होली ,दिवाली ,ईद ,शबे बराअत,पैराकी,सब पर ही कुछ न कुछ लिख़ा है लेकिन बसंत पर जो लिख़ा वो बसंत पर इज़हारे ख़्याल की अलामत बन गया. आगरा के बसंत मे नज़ीर का मज़ार बसंतउत्सव का केन्द्र रहा है. बज़्मे नजीर 1930 से नज़ीर के मज़ार पर बसंत मनाती  चली आई है आज भी वो सिलसिला जारी है इसलिये नज़ीर और बसंत का रिश्ता और भी गहरा हो गया है. नज़ीर और बसंत एक दुसरे के साहित्क और आगरा रंग की निशानी बन गये हैं वो अपनी ज़ाहिरी ज़िन्दगी मे भी बसंत बहुत ख़ुशी से मनाते थे. 

कहते हैं 

जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो

वह सैर हो कि जावे जिधर की तरफ निगाह

जो बाल भी जर्द चमके हो कज कुलाह

पी-पी शराब मस्त हों हंसते हों वाह-वाह

इसमें मियां 'नज़ीर' भी पीते हों वाह-वाह

जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो 

जब देखिए बसंत तो कैसी बसंत हो

चारों तरफ से ऐशो तरब के निशान हों

सुथरे बिछे हों फर्श धरे हार पान हों

बैठे हुए बगल में कई आह जान हों

पर्दे पड़े हों जर्द सुनहरी मकान हों

जब देखिए बसंत को कैसी बसंत हो 

सूफी बंसत की 750 साल पुरानी है परंपरा

हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में बसंत पंचमी मनाए जाने की परंपरा 750 साल पुरानी है. कहा जाता है कि हजरत निजामुद्दीन को कोई संतान नहीं थी. उन्हें अपने भांजे ख्याजा तकीउद्दीन नूंह से खूब लगाव था. लेकिन दुर्भाग्यवश बीमारी के कारण तकीउद्दीन की मृत्यु हो गई. इस घटना से हजरत निजामुद्दीन को बहुत गहरा सदमा लगा और वे दुखी रहे लगे.

ऐसे हुई परंपरा की शुरुआत

हजरत निजामुद्दीन के कई अनुयायियों में अमीर खुसरो भी एक थे. हजरत अमीर खुसरो ने गुरू-शिष्य (मुर्शिद-मुरीद) परंपरा को नया आयाम पेश किया. भांजे के मृत्यु से हजरत निजामुद्दीन दुखी रहने लगे थे. उनके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए खुसरो इसका समाधान ढूंढने लगे. एक दिन गांव की महिलाएं पीली साड़ी पहने, सरसों के फूल लिए और गीत गाते हुए जा रही थी. महिलाओं की खुशी देख खुसरो ने उनसे इसका कारण पूछा. महिलाओं ने कहा वे अपने भगवान खुश करने के लिए पीले फूल चढ़ाने के मंदिर जा रही हैं.

खुसरो ने उनसे पूछा, क्या इससे भगवान खुश हो जाएंगे? महिलाओं ने ‘हां’ में उत्तर दिया और इसी के साथ खुसरों को हजरत निजामुद्दीन के चेहरे पर मुस्कान लाने की तरकीब मिल गई. वे भी पीली साड़ी पहनकर, हाथों में पीले फूल लेकर "सकल बन फूल रही सरसों' गीत गाते हुए हजरत निजामुद्दीन के पास पहुंच गए.

अमीर खुसरो ने बसंती चोला पहन गाए बसंत के गीत 

सगन बन फूल रही सरसों.

सगन बन फूल रही सरसों.

अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार-डार,

और गोरी करत सिंगार,

मलनियां गेंदवा ले आईं कर सों,

सगन बिन फूल रही सरसों.

तरह तरह के फूल खिलाए,

ले गेंदवा हाथन में आए.

निजामुदीन के दरवज़्ज़े पर,

आवन कह गए आशिक रंग,

और बीत गए बरसों.

सगन बन फूल रही सरसों. 

खुसरों का पहनावा देख और गीत सुनकर हजरत निजामुद्दीन के चेहरे पर मुस्कान आ गई. इसके बाद से ही बसंत पचंमी के दिन हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में बंसत पंचमी मनाने की परिपाटी चली. उनके की रूहानी जानशीन हज़रत शाह नियाज़ बे नियाज़ क़ादरी चिश्ती (रज़ि) ने बसंत पर कई कलाम कहे हैं जैसे .. 

ख़्वाजः मोइनुद्दीन के घर आज धाती है बसंत 

क्या बन बना और सज सजा मुजरे को आती है बसंत 

फूलों के गुडवे हाथ लिए गाना-बजाना साथ ले 

जोबन की मध में मस्त हो हो राग गाती है बसंत 

ले संग सखियाँ गुल-बदन रंग बसंती का बरन 

क्या ही ख़ुशी और ऐ'श का सामान लाती है बसंत 

नाज़-ओ-अदा से झूमना ख़्वाजा की चौखट चूमना 

देखो 'नियाज़' इस रंग में कैसी सुहाती है बसंत 

इमाम उस्सालेकीन हज़रत शाह मोहम्मद तक़ी राज़ क़ादरी चिश्ती (रज़ि) जो हज़रत शाह नियाज़ बे नियाज़ क़ादरी चिश्ती (रज़ि) के जानशीन थे कहते हैं 

बसंत आया हवा आई बंसती 

घटा चारों तरफ छाई बसंती 

चलो ऐ 'राज़' वो रंगते हैं सबको 

घटा देखो वो लहराई बसंती .

सरसों फूली मोरी आँखन मे 

चोख़ा लगत मोहे ढंग बसंती 

राज़ के तिरे आओ प्रभू

पहनूँ चोला तुम संग बसंती 

क़दरिया सिलसिले के बहुत बडे़ सूफी संत हज़रत सय्यद अमजद अली शाह क़ादरी (रज़ि) असग़र अकबराबादी (जो नज़ीर अकबराबादी के हम असर और हज़रत सय्यद मोहम्मद अली शाह मैकश अकबराबादी के दादा थे) ने बंसत पर फारसी मे कहा है.

बाज़ आमद ब-सद बहार बसंत 

ताज़ातर हम चूँ रूये यार बसंत 

जामा इजां मन बसंती पोश 

हस्त इम रोज़ एै निगार बसंत 

हस्त अमजद अली ब-दौलते ख़ैश 

चूँ तवंगर बा-इफ्तिख़ार बसंत 

'असग़र' बे, बीं तो सब्ज़ा बदस्तार अहले हिन्द 

यानी कि सब्ज़ करदा जहाँ सर-बसर बसंत 

और क्यूँ ना हो कि सूफी साधकों ने परमात्मा की बनाई इस अनुपम सृष्टि के कण-कण से प्रेम करके हमें प्यार सिखाने का प्रयास किया है। सूफियों ने सरोवरों, पर्वतों, पेड़-पौधों, नदियों, मौसमों, त्योहारों, रीति-रिवाजों, भाषााओं आदि सभी में परमात्मा का ही रूप देखा और उनकी पूजा की. दुनिया की प्रत्येक वस्तु परमात्मा की बनाई हुई है और सभी में उसका वास है। सूफी कवि संसार के जिन इलाकों में गए वहां की प्राकृतिक सुंदरता को परमात्मा की रचना मान उसकी तारीफ में कविताएं लिखीं. फारसी सूफी साहित्य में कुदरत की तारीफों में कही गई गजलें भरी पड़ी हैं. 

सूफी कवि अमीर खुसरो ने अपने उदास गुरु हजरत निजामुद्दीन औलिया को खुश करने के लिए हिंदुओं के प्राचीन बसंत पंचमी त्यौहार को चिश्ती सूफी मत सिलसिले में मनाने का रिवाज शुरू किया था. वसंत के सुहाने मौसम में परमात्मा के दर्शन करते हुए अमीर खुसरो मस्ती में झूमते हुए गाते हैं, ‘आज बसंत मना ले सुहागिन, आज वसंत मना ले, अंजन–मंजन कर पिया बौरी, लंबे नेहर लगाए, तू का सोवे नींद की मासी, सो जागे तोरे भाग सुहागन, ऊंची नार के ऊंचे चितवन, ऐसो दियो है बनाय, शाहे अमीर तोहे देखन को, नैनों से नैना मिलाए सुहागन.’ 

1318 ई. में मसनवी नुह सिपहर यानी नौ आसमान में अमीर खुसरो ने अपने वतन हिंदुस्तान की संस्कृति, प्रकृति, जलवायु, पशु-पक्षियों और मौसम की जी खोल कर तारीफ की है. वह कहते हैं, ‘हिंदुस्तान साल भर फूलों से लबाबल भरा रहता है. इसके फूल तरह-तरह की खुशबुओं से महकते रहते हैं. हिंदुस्तान की ठंडी हवा की कुछ और ही बात है कि वह भीतर से जन्नत का असर रखती है. विदेशी फूल हमारे फूलों के मुकाबले में सुंदरता और रंग की दृष्टि से बराबर हैं, मगर हमारे फूलों की सी खुशबू उनमें नहीं होती. हिंदुस्तान की गर्मी में कुछ तकलीफ जरूर होती है, मगर वहां खुरासान में तो सभी लोग सर्दी से मर जाते हैं. हिंदू गड़रिया एक पुरानी चादर में रात गुजार लेता है. यहां फूलों में से कुछ ऐसे हैं कि सूखने पर भी वे कस्तूरी मृग की नाफ (नाभि) की तरह खुशबू से भरे रहते हैं.

दरगाह हजरत निजामुद्दीन औलिया में बसंत पंचमी का मेला लगता है. यह तीन दिन चलता सर पर पीला कपड़ा बांधे स्त्री-पुरुष हाथों में सरसों के फूलों का गढ़वा लिए मजार पर चढ़ाते हैं और खुसरो की कव्वालियां गाते हैं, ‘बहार के बादल आंसू बहाने आ रहे हैं. बसंत के आते ही रंग-बिरंगे फूलों की बरखा हो रही है. ऐ साकी फूल बरसाओ और मदिरापान कराओ.’ अमीर खुसरो द्वारा वसंत मनाने की रिवायत की याद में पाकिस्तान की दरगाहों में वसंत पंचमी बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है.

आगरा मे भी इसी परम्परा को यादगार ए आगरा की ओर से सूफी बसंत का आयोजन हज़रत सय्यद अजमल अली शाह साहब और उन के अनुयाई करते हैं इस साल भी 26 जानवरी 2023 को आयोजन किया गया जिसमे डॉ जे, एन टण्डन को नजीर अकबराबादी ऐवार्ड और डॉ मुकुल पंड्या को नेचर पर काम के लिये बसंत एवार्ड दिया गया, विशिष्ट अतिथि के रूप मे डॉ. अंकुश दबेऔर मुख्य अतिथि डॉ ज़मीर अहमद उपस्थित रहे. 

कार्यक्रम का संचालन विशाल रियाज़ ने किया, डॉ. विजय शर्मा ने महमानो को स्वागत किया किया संस्था के सचिव ऐडवोकेट अमीर अहमद ने धन्यवाद दिया. महमूद अकबराबादी ने आगरा पर अपनी नज़्म के साथ कार्यक्रम का आग़ाज़ किया. शाहिद नदीम,माहिर अकबराबादी,अफज़ाल अकबराबादी ने कलाम पेश किया मुदित शर्मा ने नज़ीर की नज़्म पढी़, डॉ इख़्तियार जाफरी ने बसंत पर निबंध पेश किया.अनिल झा ने बंसूरी वादन से समा बांधा, विशेष रूप से सय्यद शमीम अहमद शाह सय्यद शब्बर अली शाह सय्यद मोहत्शिम अली अबुल उलाई सय्यद शफख़त अहमद ,सय्यद महमूद उज़्ज़मा,सय्यद अशफाख़  सय्यद ग़ालिब अली शाह सय्यद मोहत्शिम अली शाह डॉ सय्यद फाईज़ अली शाह सय्यद नक़ी अली शाह  हाजी इम्तियाज़,निसार अहमद,ज़ाहिद हुसैन,बरकत अली, हाज़ी अल्ताफ हुसैन अख़्तर उवैसी,लईख़ उवैसी,नायाब उवैसी,ऐजाज़ उद्दीन,चाँद अब्बासी,जमाल अहमद, सनी(जावेद),अमिर,शादाब,अयान,शमीम,ख़ावर हाशमी, अज़हर उमरी, शमीम,शहीन हाशमी,हाज़ी तौफीक़ मुबारक अली,समी अग़ाई,असलम सलीमी आदि मौजूद रहे